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जमशेदपुर की बंद पड़ी केबुल कंपनी को लेकर कोलकाता एनसीएलटी में हुई सुनवाई, मजदूरों की दावेदारी पर चली बहस

  • आईबीसी की धारा 53 के अनुसार वित्तीय ऋणधारकों के बराबर मजदूर हैसियत मानते हुए लेनदारों की समिति बनाने का तर्क 
  • अधिवक्ता ने बताया – वेदांता ने इंकैब कंपनी लेने के लिए कोई रिजोल्यूशन प्लान नहीं दिया है, कॉपी मजदूरों को नहीं दी गयी 

जमशेदपुर . कोलकाता की एनसीएलटी के अरविंद देवनाथन और बिदीसा बनर्जी की बेंच में बंद बंद इंकैब इंडस्ट्रीज (केबुल कंपनी) के मामले की सुनवाई हुई. अधिवक्ता अखिलेश श्रीवास्तव ने बेंच को बताया कि कंपनी में साझेदार समूह में अगर प्रोमोटर ऋण नहीं चुकाता है. ऐसे में प्रोमोटर समूह के निदेशकों को आईबीसी कानून के तहत निलंबित कर दिया जाता है और मैनेजमेंट की जिम्मेदारी वित्तीय ऋणदाताओं को दी जाती है. इंकैब कंपनी में ऋणदाता नहीं है क्योंकि कंपनी 1993 से 1996 तक बंद थी और सभी ऋण 1992 तक एनपीए (गैर निष्पादित परिसंपत्तियों) में तब्दील हो गये. इस तरह सारे ऋण 1996 में समाप्त हो चुके हैं. अब केवल मजदूर है जो आईबीसी की धारा 53 के अनुसार वित्तीय ऋणधारकों के बराबर हैसियत रखते हैं उनसे ही लेनदारों की समिति बनानी पड़ेगी. उन्होंने एनसीएलटी को बताया कि उन्होंने यही बहस उच्चतम न्यायालय में भी की थी जिसके बाद कमला मिल्स लिमिटेड की अपील उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दी थी.

  • फर्जी वित्तीय लेनदार 4000 करोड़ रूपये का दावा कर रहे हैं जबकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने कुल देनदारी 21.63 करोड़ तय कर दिया था 

अखिलेश श्रीवास्तव ने बताया कि कमला मिल्स लिमिटेड और फस्क्का इन्वेस्टमेंट प्राईवेट लिमिटेड कंपनियां ने जो रमेश घमंडीराम गोवानी की कंपनियां हैं, ने एसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी से 2006 में आईसीआईसीआई बैंक की गैर निष्पादित अस्थियां खरीदी यानी 10 सालों के बाद क्योंकि ये ऋण 1996 में ही समाप्त हो गया था. पेगासस ने एक्सिस बैंक की गैर निष्पादित अस्तियां 2016 में खरीदी यानी 20 सालों के बाद जबकि ये ऋण भी 1996 में समाप्त हो गया था. केनरा बैंक का ऋण सिटी बैंक ने दिया पर सिटी बैंक ने 1999 तक ना तो उच्च न्यायालय में ही किसी और अदालत में अपने ऋण का दावा किया इसलिए ये ऋण भी 1996 या ज्यादा से ज्यादा 1999 में समाप्त हो गये इसलिए ट्रॉपिकल वेंचर का दावा वैसे ही फर्जी है जैसे कमत्या मिल्स, फस्क्वा और पेगासस का. उन्होंने आगे कहा कि आरबी सिंह ने कंपनी का करोड़ों रूपया गबन किया है जिसमें पीएफ का भी पैसा शामिल है.

  • 13 अगस्त को फिर से मामले की सुनवाई होगी

उन्होंने आगे कहा कि यूनिवर्सल लीडर के सारे निदेशक 2000 में कंपनी कानून की धारा 283 के तहत अपने अपने निदेशक के पद खो दिये थे और 2003 में कंपनी कानून की धारा 274 के अनुसार निदेशक बनने लायक नहीं रहे लेकिन इन्होंने किसी लेनदेन के तहत 2008 में रमेश घमंडीराम गोवानी राम के तीन लोगों के निदेशक बनाया और रमेश घमंडीराम गोवानी खुद बीएफआईआर की रजिस्ट्री के एक फर्जी फैक्स के सहारे इंकैब कंपनी का निदेशक बन बैठा और कंपनी की सारी परिसंपत्तियों को हड़प लिया और सालाना आय को भी हड़प लिया जो आज की तारीख में 500 करोड़ रूपये से ज्यादा है और इतने पैसे देकर वेदांता इंकैब को खरीदना चाह रही है. उसका कंपनी को चलाने का कोई इरादा नहीं है.

रमेश घमंडीराम गोवानी ने 2019 में इंकैब के निदेशक पद से इस्तीफा दिया पर आज भी पुणे की फैक्टरी और परिसंपत्तियों पर काबिज है और उनकी आय को बिना रोक टोक के हड़प रहा है क्योंकि जो नया रिजोल्यूशन प्रोफेशनल पंकज टिबरेवाल है वह रमेश घमंडीराम गोवानी का एजेंट बन गया है. उन्होंने आगे कहा कि लेनदारों की कमिटी को एनसीएलएटी ने अपने 4 जून 2021 के आदेश द्वारा शुरू से ही अमान्य माना था तब इस नये अंतरिम रिजोल्यूशन प्रोफेशनल पंकज टिबरेवाल ने लेनदारों की कमिटी कब बनाई? उन्होंने आगे बताया कि लेनदारों की कोई कमिटी नहीं है क्योंकि अंतरिम रिजोल्यूशन प्रोफेशनल पंकज टिबरेवाल ने ऋणों की कोई जांच नहीं की और ना ही मजदूरों को 2016 की दिवालियापन कानून की धारा 24 (3) (सी) के तहत लेनदारों की कमिटी की बैठकों की कोई सूचना ही दी.

उन्होंने आगे बताया कि वेदांता ने इंकैब कंपनी लेने के लिए कोई रिजोल्यूशन प्लान नहीं दिया है और वह एक जालसाज कंपनी है क्योंकि अगर कोई रिजोल्यूशन प्लान होता तो सर्वोच्च न्यायालय के विजय कुमार जैन बनाम स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के फैसले के अनुसार अंतरिम रिजोल्यूशन प्रोफेशनल पंकज टिबरेवाल को उसकी कापी मजदूरों को देना था जो उसने दिया नहीं और केवल लेनदारों की कमिटी ही किसी रिजोल्यूशन प्लान की स्वीकृति दे सकती है जबकि लेनदारों की कोई कमिटी माननीय एनसीएलएटी के 4 जून 2021 के आदेश के अनुसार है ही नहीं. उन्होंने आगे बताया कि रमेश घमंडीराम गोवानी 2009 में अपने गुंडों की मदद से चाबियों का गुच्छा मजदूरों से छीनकर कंपनी पर काबिज हो गया. उन्होंने आगे बताया कि ये तथाकथित फर्जी वित्तीय लेनदार 4000 करोड़ रूपये का दावा कर रहे हैं जबकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने इंकैब की कुल वित्तीय देनदारी 21.63 करोड़ रुपये अपने 6 जनवरी 2016 के आदेश द्वारा तय कर चुकी है जिसे सर्वोच्च न्यायालय भी अपने 1 जुलाई 2016 के आदेश द्वारा अनुमोदित कर चुकी है. समय अभाव के कारण बहस अधूरी रही. 13 अगस्त को फिर से मामले की सुनवाई होगी. कर्मचारियों की तरफ से अधिवक्ता अखिलेश श्रीवास्तव, आकाश शर्मा और मंजरी सिंहा ने हिस्सा लिया.

 

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