- कोर्ट ने कहा, विधि स्नातकों का वकीलों के रूप में पंजीकरण करने के लिए क्रमश: 650 रुपये और 125 रुपये से अधिक शुल्क नहीं लिया जा सकता
New Delhi. सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को फैसला सुनाया कि राज्य ‘बार काउंसिल’ विधि स्नातकों का वकील के रूप में पंजीकरण करने के लिए अत्यधिक शुल्क नहीं ले सकतीं, क्योंकि यह हाशिए पर पड़े और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के खिलाफ ‘व्यवस्थागत भेदभाव’ को बढ़ावा देता है.
पीठ ने कहा कि ‘समानता के लिए गरिमा अत्यंत महत्वपूर्ण है’ और राज्य ‘बार काउंसिल’ (एसबीसी) और ‘बार काउंसिल ऑफ इंडिया’ (बीसीआई) संसद द्वारा निर्धारित राजकोषीय नीति में ‘परिवर्तन या संशोधन’ नहीं कर सकतीं. प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि ‘बार काउंसिल’ अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के तहत दी गई शक्तियों का इस्तेमाल करती हैं और वे सामान्य एवं अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति (एससी-एसटी) श्रेणी के विधि स्नातकों का वकीलों के रूप में पंजीकरण करने के लिए क्रमश: 650 रुपये और 125 रुपये से अधिक शुल्क नहीं ले सकतीं.
शीर्ष अदालत ने राज्य ‘बार काउंसिल’ द्वारा लिए जा रहे ‘अत्यधिक’ शुल्क को चुनौती देने वाली 10 याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए यह फैसला सुनाया। न्यायालय ने 22 मई को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. याचिकाओं में यह आरोप लगाया गया था कि ओडिशा में पंजीकरण शुल्क 42,100 रुपये, गुजरात में 25,000 रुपये, उत्तराखंड में 23,650 रुपये, झारखंड में 21,460 रुपये और केरल में 20,050 रुपये है, जबकि अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24 के तहत 650 रुपये और 125 रुपये का शुल्क निर्धारित किया गया है.
पीठ ने कहा, ‘एसबीसी और बीसीआई निर्धारित पंजीकरण शुल्क और स्टाम्प शुल्क (यदि कोई हो) के अलावा किसी अन्य शुल्क के भुगतान की मांग नहीं कर सकतीं.’ प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘किसी व्यक्ति की गरिमा में उसकी अपनी क्षमता का पूर्ण विकास करने का अधिकार, अपनी पसंद का पेशा अपनाने और आजीविका कमाने का अधिकार शामिल है. ये सभी चीजें व्यक्ति की गरिमा के अभिन्न अंग हैं.
न्यायालय ने कहा कि पंजीकरण के लिए पूर्व शर्त के रूप में अत्यधिक पंजीकरण शुल्क एवं अन्य विविध शुल्क वसूलना कानूनी पेशे में प्रवेश में बाधा उत्पन्न करता है.
उसने कहा, ‘पंजीकरण की पूर्व शर्त के रूप में अत्यधिक शुल्क लगाना उन लोगों की गरिमा को ठेस पहुंचाता है, जो कानून के क्षेत्र में अपने करियर को आगे बढ़ाने में सामाजिक और आर्थिक बाधाओं का सामना करते हैं और यह हाशिए पर पड़े एवं आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लोगों के खिलाफ प्रणालीगत भेदभाव को कानूनी पेशे में समान भागीदारी को कमजोर करके प्रभावी तरीके से बरकरार रखता है.’ पीठ ने मौजूदा पंजीकरण शुल्क संरचना को ‘‘मौलिक समानता के सिद्धांत’’ के विपरीत मानते हुए एसबीसी और बीसीआई से यह सुनिश्चित करने को कहा कि शुल्क ‘‘विभिन्न मदों की आड़ में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से’ कानून का उल्लंघन नहीं करे.
उसने हालांकि, कहा कि यह फैसला भावी रूप से लागू होगा और एसबीसी को अब तक लिया गया अतिरिक्त शुल्क वापस करने की आवश्यकता नहीं है. उसने कहा कि बार निकाय विधि स्नातकों का वकील के रूप में पंजीकरण के बाद उन्हें प्रदान की जाने वाली अन्य सेवाओं के लिए शुल्क ले सकते हैं.
पीठ ने कहा, ‘‘एसबीसी द्वारा पंजीकरण के समय धारा 24 (1) (एफ) के तहत कानूनी प्रावधान से अधिक शुल्क और प्रभार वसूलने का निर्णय संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और 19, 1 (जी) (पेशा अपनाने का अधिकार) का उल्लंघन है.’ शीर्ष अदालत ने 10 अप्रैल को याचिकाओं पर केंद्र, बीसीआई और अन्य राज्य बार निकायों को नोटिस जारी किया था और कहा था कि उन्होंने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है.