New Delhi.सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अपीलीय अदालत मध्यस्थ अधिकरण के फैसले के सही या गलत होने का पता लगाने के लिए विवाद के साक्ष्यों का पुनर्मूल्यांकन नहीं कर सकती. हालांकि, शीर्ष अदालत ने कहा कि अपीलीय अदालत निर्णय में तभी हस्तक्षेप कर सकती है जब यह भारत की लोक नीति के अनुरूप नहीं हो, या धोखाधड़ी या भ्रष्टाचार से प्रेरित या प्रभावित हो. न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने कहा कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 का उद्देश्य अदालतों के न्यूनतम हस्तक्षेप के साथ विवादों के त्वरित और किफायती वैकल्पिक समाधान की व्यवस्था करना है.
न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की धारा 5 इस संबंध में अंतर्निहित है और न्यायिक प्राधिकारी द्वारा मध्यस्थता कार्यवाही में हस्तक्षेप को प्रतिबंधित करती है, सिवाय इसके कि जहां कानून में ऐसा प्रावधान हो. पीठ ने कहा, ‘अपीलीय अदालत को मध्यस्थ अधिकरण के समक्ष विवादित मामले पर गुण-दोष के आधार पर विचार करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है, ताकि साक्ष्यों के पुनर्मूल्यांकन के आधार पर यह पता लगाया जा सके कि मध्यस्थ अधिकरण का निर्णय सही है या गलत.
पीठ ने पंजाब राज्य नागरिक आपूर्ति निगम लिमिटेड की अपील को स्वीकार कर लिया, जिसमें उसने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के 10 जनवरी 2017 के आदेश को चुनौती दी थी. उच्च न्यायालय ने चावल की आपूर्ति को लेकर एक चावल मिल के साथ विवाद में मध्यस्थता निर्णय को रद्द कर दिया था.
पीठ ने कहा कि अधिनियम की धारा 34 को सरसरी तौर पर पढ़ने पर पता चलता है कि धारा 34 के तहत मध्यस्थता निर्णय में अदालत द्वारा हस्तक्षेप का दायरा बहुत सीमित है और अदालत को यह पता लगाने के लिए उक्त दायरे से आगे नहीं जाना चाहिए कि निर्णय सही है या गलत.
न्यायालय ने कहा, ‘केवल इस आधार पर कि अपीलीय अदालत का निर्णय मध्यस्थ अधिकरण के निर्णय से बेहतर है, निर्णय को रद्द करने का कोई आधार नहीं है. इसके साथ ही, न्यायालय ने 10 जनवरी 2017 के आदेश को रद्द कर दिया, जबकि 8 नवम्बर 2012 के मध्यस्थता निर्णय को बहाल कर दिया.
Supreme Court Dicision: अपीलीय अदालत मध्यस्थ अधिकरण के निर्णय से संबंधित साक्ष्य की फिर से पड़ताल नहीं कर सकती
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