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Jharkhand -गुआ गोली कांड पर विशेष: तमाम कुर्बानियों एवं आंदोलनो के बाद सन 2000 में झारखंड, बिहार से अलग हो गया लेकिन आदिवासियों के हालात में कुछ विशेष उत्थान नहीं करा पाए आदिवासी मंत्री-मुख्यमंत्रीगण, आदिवासियों की राजनीति करने वाले लोग विधायक, सांसद, मंत्री करोड़पति और अरबपति बन गए लेकिन समाज में जल, जंगल,जमीन के साथ बेरोजगारी ,पलायन, अशिक्षा जैसे मुद्दे आज भी हैं मौजूद

गुआ गोली कांड पूंजीवादी विकास के चलते आदिवासियों की परंपरागत सामाजिक एवं आर्थिक जीवन शैली पर हुए कुठाराघात के कारण उत्पन्न हुई उनकी समस्याओं की एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर आज तक उन समस्याओं पर कोई भी गतिशील,वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं अपनाया गयाl

जंगल आदिवासियों के लिए महत्वपूर्ण साधन है, वहां से फल, पत्तियां एवं कृषि तथा घरेलू कार्यों के लिए जलावन एवं लड़कियां लाने के खिलाफ सरकारी क़ानूनों का बहाना बनाकर अपने निहित स्वार्थ के लिए जंगल के अधिकारियों ने रोकथाम शुरू की तो आदिवासियों के सामने अपने परंपरागत हकों की हिफाजत एवं अस्तित्व रक्षा की खातिर आंदोलन चलाने के अलावा कोई चारा नहीं रह गयाl

1978 में जंगल आंदोलन के उग्र दौर में दो पुलिस गोली कांडों में चार आदिवासी मारे गएl तब से पुलिस और सीआरपीएफ के जवानों को सिंहभूम के जंगलों में तैनात करने और सैकड़ो की संख्या में आदिवासियों को गिरफ्तार करने का सिलसिला शुरू हुआ,लेकिन इसकी पराकाष्ठा हुई 8 सितंबर 1980 को, जब जिला मुख्यालय चाईबासा से 80 किमी दूर गुआ में पुलिस की गोली से 11 आदिवासी और आदिवासियों के तीरों से चार पुलिसकर्मी मारे गएl

घटनास्थल पर उपस्थित प्रत्यक्ष दर्शियों के अनुसार पुलिस और आदिवासियों के बीच तनाव की स्थिति तब उत्पन्न हुई जब तीर धनुष से लैस लगभग 3000 आदिवासियों की भीड़ में से उनके दो नेताओं को पुलिस पकड़ कर ले गई, यह विवेक हीनता का परिचायक थाl तत्काल ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं थी, नेताओं की गिरफ्तारी के बाद ही आदिवासियों ने पुलिस पर तीर धनुष से हमला कर दिया, जिसमें चार पुलिस वाले मारे गएl जवाब में पुलिस वालों ने भी गोली चलाई, जिसमें 11 आदिवासी मारे गए l

आजादी की लड़ाई से लेकर झारखंड आंदोलन की लड़ाई का गवाह सारंडा आज हताश और निराश हैl लकड़ी और आयरन ओर माफियाओं ने नेताओं और प्रशासन की मिली भगत से जिस तरह सारंडा का चीर हरण किया है वह द्रौपदी के चीर हरण से कम नहीं हैl तमाम कुर्बानियों एवं आंदोलनो के बाद सन 2000 में झारखंड बिहार से अलग हो गया लेकिन आदिवासियों के हालात में कुछ विशेष उत्थान नहीं हुआl

भूतपूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास का 5 वर्ष का कार्यकाल निकाल दें तो 18 वर्ष आदिवासी ही इस प्रांत के मुख्यमंत्री रहे हैं, लेकिन जल जंगल जमीन के साथ मानव तस्करी,बेरोजगारी,पलायन, अशिक्षा जैसे मुद्दे आज भी मौजूद हैं, अल्बत्ते आदिवासियों की राजनीति करने वाले लोग विधायक, सांसद मंत्री,करोड़पति और अरबपति बन गएl

सर्वोदय नेता आचार्य विनोबा भावे ने 10 अगस्त 1969 को रांची में अपने प्रवास के दौरान अखिल भारतीय झारखंड पार्टी के सदस्यों से बातचीत की और कई महत्वपूर्ण विचार व्यक्त कियेl प्रारंभ में विनोबा जी का स्वागत करते हुए अध्यक्ष बागुन सुंबरई ने कहा था कि आप शोषण और अत्याचार से मुक्त होने का रास्ता बताएं और साथ में यह भी कहा कि यहां पर करोड़ों की वाणी से निकला है ‘झारखंड,’
इस संदर्भ में विचार व्यक्त करते हुए विनोबा भावे ने कहा कि– ए पॉलीटिकल विचार हैं, भारत में प्राचीन काल से लेकर आज तक पचासों प्रांत बने और पचासों गए, मुख्य बात यह है कि जनशक्ति लोक शक्ति बननी चाहिएl झारखंड बन गया तो भी कुछ लोग ही मंत्री, गवर्नर वगैरह बनेंगे और जनता अपनी जगह रहेगी, उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैंl

आप आयें तो कभी गांव की चौपालों पर,
हम रहें या न रहें भूख मेज़बां होगीl
अरविन्द

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